भगवान परशुराम
परिचय
भगवान परशुराम जी अहंकारी और दुष्ट हैहय वंशी क्षत्रियों का पृथ्वी से २१ बार संहार करने के लिए प्रसिद्द है। वे धरती पर वैदिक संस्कृति का प्रचार - प्रसार करना चाहते थे . कहा जाता है भारत के अधिकतर गांव उन्ही के द्वारा बसाये गए। वे भार्गव गोत्र की सबसे आज्ञाकरी संतानों में से एक थे , जो हमेशा गुरु और माता - पिता की आज्ञा का पालन करते थे। परशुराम जी का रामायण , महाभारत ,भागवत पुराण और कल्कि पुराण आदी अनेक ग्रंथो में उल्लेख किया गया है। वे ब्राह्मण कुल के थे पर उनका कर्म क्षत्रिओं के थे। बाल्यकाल में ही वे अपनी माता से अधिकांश विद्यायें सिख ली थी वे पशु पक्छियों की भाषा को समझते थे और उनसे बातें करते थे। खूंखार पशु भी उनके स्पर्श से उनके मित्र बन जाते थे।
जन्म
परशुराम भगवान विष्णु के छठे आवेशावतार है , ये चिरंजीवी होने से कल्पांत तक स्थायी है। इनका प्रादुर्भाव वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को हुआ था , इसलिए इस तिथि को अक्षय तृतीया कही जाती है।इनके पिता का नाम यमदग्नि और माता का रेणुका था। पांच भाइयों में सबसे छोटे थे , रुक्मवान , सुखेन , वसु , विश्वानस और परशुराम लेकिन गुणों में सबसे आगे थे।
माता का वध
एक दिन गंधर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ विहार करता हुआ देख हवन के लिए गंगा तट पर जल लेने गयी रेणुका आसक्त हो गई और कुछ देर तक वही रुक गयी। हवन का समय बीत जाने पर मुनि यमदग्नि बहुत क्रोधित हुए आर्य मर्यादा के विरोध आचरण एवं मानसिक व्यभिचार करने के लिए दंड स्वरुप सभी पुत्रो को माता रेणुका का वध करने की आज्ञा दी , लेकिन मोहवश किसी पुत्र ने ऐसा नहीं किया। तब मुनि ने उन्हें श्राप दे दिया और उनकी विचार शक्ति का नाश हो गयी । अन्य भाइयों द्वारा ऐसा न कर पाने पर पिता के तपोबल से प्रभावित परशुराम ने उनकी आज्ञानुसार माता का शिर धड़ से अलग कर दिया। यह देखकर महर्षि यमदग्नि बहुत प्रसन्न हुए और वरदान मांगने के लिया कहा तो उन्होंने तीन वर मांगे -१. माँ पुनः जीवित हो जाए २. उन्हें मरण की स्मृति न रहे ३.भाई चेतना युक्त हो जाये। महर्षि यमदग्नि ने उन्हें तीनो वरदान दे दिए। माता पुनः जीवित हो गयी।
पिता की हत्या और परशुराम का प्रतिशोध
कथा है कि हैहय वंश के अधिपति कार्त्यवीर्य अर्जुन ( सहस्त्रार्जुन) ने कठिन तप के द्वारा भगवान दत्तात्रेय को खुश कर एक हजार भुजाये और युद्ध में किसी से परास्त न होने का वर पाया था। संयोगवश जंगल में शिकार करते वह यमदग्नि जी के आश्रम पर जा पंहुचा। देवराज इंद्रा के द्वारा दी हुई कपिला कामधेनु ( गाय ) की सहायता से हुए सभी सैनिको का आथित्य सत्कार पर लोभ के कारण यमदग्नि की अनादर करते हुए कामधेनु को बलपूर्वक छीनकर मुनि की हत्या करके चला गया। इस पर क्रोधित होकर परशुराम ने अपने फरसे के प्रहार से उसकी सारी भुजाए काट डाली व शिर को धड़ से अलग कर दिया और रेणुका माता पति की चिता की अग्नि में प्रवेश कर सती हो गयी। इस कांड से क्रोधित परशुराम ने पूरी ताकत से महिष्मति नगरी पर आक्रमण कर दिया और उस पर अपना अधिकार कर लिया। इसके बाद उन्होंने एक के बाद एक पुरे इक्कीस बार इस पृथ्वी से क्षत्रियों का विकाश किया। यही नहीं अपने पिता का श्राद्ध सहस्त्रार्जुन के पुत्रो के रक्त से किया। अंत में महर्षि रीचिक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोका। इसके बाद उन्होंने अश्वमेघ महायज्ञ किया और सातों द्वीप युक्त पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी और महेंद्र पर्वत पर आश्रम बनाकर रहने लगे।
उपसंहार
रामायण और महाभारत काल में भी भगवान परशुराम का उल्लेख मिलता है। उन्होंने सैन्य शिक्षा केवल ब्राह्मणों को ही दी है. लेकिन कुछ अपवाद भी है जैसे भीष्म और कर्ण। कर्ण की कथा आतीं है जिसमे कर्ण भगवान परशुराम की सेवा कर रहा था और उसकी जंघा में एक बिच्छू ने घाव कर दिया परन्तु विश्राम भंग नहीं किया। अचानक परशुराम की निद्रा टूटी और ये जानकर एक ब्राह्मण पुत्र में इतनी सहनशक्ति नहीं हो सकती कि वह बिच्छु का दंश सहन कर सके। कर्ण के झूठ बोलने पर उन्होंने श्राप दे दिया कि जब उसे अपनी विद्या की सर्वाधिक आवश्यकता होगी तो वह उसे काम नहीं आएगी। कल्कि पुराण के अनुसार परशुराम भगवान विष्णु के दसवे अवतार कल्कि के गुरु होंगे और उन्हें शिक्षा देगें वे ही कल्कि को भगवान शिव की तपस्या करके उनके दिव्यास्त्र को प्राप्त करने के लिए कहेगे।
अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषणः। कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरंजीविनः॥ सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्। जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।
विश्ववन्द्य महाबाहु भगवान परशुराम के बारे अनगिनत कथानक उपलब्ध है वे आज भी हमारे आप के बीच विद्यमान है हमें उनके आदर्शो पर चलना चाहिए , भगवान परशुराम जी जीवन से हमें प्रेरणा लेनी चाहिए और सदैव अन्याय , अत्याचार का पूरा विरोध करना चाहिए।
उनका कहना था कि राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना ना कि अपनी प्रजा से आज्ञा का पालन करवानां।
अंत में सभी सनातनियो , श्रेष्ठों , तथा मित्रो को भगवान परशुराम की जयंती की बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाये !!!
जय भगवान परशुराम जी की
पंडित राकेश शुक्ल शास्त्री
परिचय
भगवान परशुराम जी अहंकारी और दुष्ट हैहय वंशी क्षत्रियों का पृथ्वी से २१ बार संहार करने के लिए प्रसिद्द है। वे धरती पर वैदिक संस्कृति का प्रचार - प्रसार करना चाहते थे . कहा जाता है भारत के अधिकतर गांव उन्ही के द्वारा बसाये गए। वे भार्गव गोत्र की सबसे आज्ञाकरी संतानों में से एक थे , जो हमेशा गुरु और माता - पिता की आज्ञा का पालन करते थे। परशुराम जी का रामायण , महाभारत ,भागवत पुराण और कल्कि पुराण आदी अनेक ग्रंथो में उल्लेख किया गया है। वे ब्राह्मण कुल के थे पर उनका कर्म क्षत्रिओं के थे। बाल्यकाल में ही वे अपनी माता से अधिकांश विद्यायें सिख ली थी वे पशु पक्छियों की भाषा को समझते थे और उनसे बातें करते थे। खूंखार पशु भी उनके स्पर्श से उनके मित्र बन जाते थे।
जन्म
परशुराम भगवान विष्णु के छठे आवेशावतार है , ये चिरंजीवी होने से कल्पांत तक स्थायी है। इनका प्रादुर्भाव वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को हुआ था , इसलिए इस तिथि को अक्षय तृतीया कही जाती है।इनके पिता का नाम यमदग्नि और माता का रेणुका था। पांच भाइयों में सबसे छोटे थे , रुक्मवान , सुखेन , वसु , विश्वानस और परशुराम लेकिन गुणों में सबसे आगे थे।
माता का वध
एक दिन गंधर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ विहार करता हुआ देख हवन के लिए गंगा तट पर जल लेने गयी रेणुका आसक्त हो गई और कुछ देर तक वही रुक गयी। हवन का समय बीत जाने पर मुनि यमदग्नि बहुत क्रोधित हुए आर्य मर्यादा के विरोध आचरण एवं मानसिक व्यभिचार करने के लिए दंड स्वरुप सभी पुत्रो को माता रेणुका का वध करने की आज्ञा दी , लेकिन मोहवश किसी पुत्र ने ऐसा नहीं किया। तब मुनि ने उन्हें श्राप दे दिया और उनकी विचार शक्ति का नाश हो गयी । अन्य भाइयों द्वारा ऐसा न कर पाने पर पिता के तपोबल से प्रभावित परशुराम ने उनकी आज्ञानुसार माता का शिर धड़ से अलग कर दिया। यह देखकर महर्षि यमदग्नि बहुत प्रसन्न हुए और वरदान मांगने के लिया कहा तो उन्होंने तीन वर मांगे -१. माँ पुनः जीवित हो जाए २. उन्हें मरण की स्मृति न रहे ३.भाई चेतना युक्त हो जाये। महर्षि यमदग्नि ने उन्हें तीनो वरदान दे दिए। माता पुनः जीवित हो गयी।
पिता की हत्या और परशुराम का प्रतिशोध
कथा है कि हैहय वंश के अधिपति कार्त्यवीर्य अर्जुन ( सहस्त्रार्जुन) ने कठिन तप के द्वारा भगवान दत्तात्रेय को खुश कर एक हजार भुजाये और युद्ध में किसी से परास्त न होने का वर पाया था। संयोगवश जंगल में शिकार करते वह यमदग्नि जी के आश्रम पर जा पंहुचा। देवराज इंद्रा के द्वारा दी हुई कपिला कामधेनु ( गाय ) की सहायता से हुए सभी सैनिको का आथित्य सत्कार पर लोभ के कारण यमदग्नि की अनादर करते हुए कामधेनु को बलपूर्वक छीनकर मुनि की हत्या करके चला गया। इस पर क्रोधित होकर परशुराम ने अपने फरसे के प्रहार से उसकी सारी भुजाए काट डाली व शिर को धड़ से अलग कर दिया और रेणुका माता पति की चिता की अग्नि में प्रवेश कर सती हो गयी। इस कांड से क्रोधित परशुराम ने पूरी ताकत से महिष्मति नगरी पर आक्रमण कर दिया और उस पर अपना अधिकार कर लिया। इसके बाद उन्होंने एक के बाद एक पुरे इक्कीस बार इस पृथ्वी से क्षत्रियों का विकाश किया। यही नहीं अपने पिता का श्राद्ध सहस्त्रार्जुन के पुत्रो के रक्त से किया। अंत में महर्षि रीचिक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोका। इसके बाद उन्होंने अश्वमेघ महायज्ञ किया और सातों द्वीप युक्त पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी और महेंद्र पर्वत पर आश्रम बनाकर रहने लगे।
उपसंहार
रामायण और महाभारत काल में भी भगवान परशुराम का उल्लेख मिलता है। उन्होंने सैन्य शिक्षा केवल ब्राह्मणों को ही दी है. लेकिन कुछ अपवाद भी है जैसे भीष्म और कर्ण। कर्ण की कथा आतीं है जिसमे कर्ण भगवान परशुराम की सेवा कर रहा था और उसकी जंघा में एक बिच्छू ने घाव कर दिया परन्तु विश्राम भंग नहीं किया। अचानक परशुराम की निद्रा टूटी और ये जानकर एक ब्राह्मण पुत्र में इतनी सहनशक्ति नहीं हो सकती कि वह बिच्छु का दंश सहन कर सके। कर्ण के झूठ बोलने पर उन्होंने श्राप दे दिया कि जब उसे अपनी विद्या की सर्वाधिक आवश्यकता होगी तो वह उसे काम नहीं आएगी। कल्कि पुराण के अनुसार परशुराम भगवान विष्णु के दसवे अवतार कल्कि के गुरु होंगे और उन्हें शिक्षा देगें वे ही कल्कि को भगवान शिव की तपस्या करके उनके दिव्यास्त्र को प्राप्त करने के लिए कहेगे।
अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषणः। कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरंजीविनः॥ सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्। जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।
विश्ववन्द्य महाबाहु भगवान परशुराम के बारे अनगिनत कथानक उपलब्ध है वे आज भी हमारे आप के बीच विद्यमान है हमें उनके आदर्शो पर चलना चाहिए , भगवान परशुराम जी जीवन से हमें प्रेरणा लेनी चाहिए और सदैव अन्याय , अत्याचार का पूरा विरोध करना चाहिए।
उनका कहना था कि राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना ना कि अपनी प्रजा से आज्ञा का पालन करवानां।
अंत में सभी सनातनियो , श्रेष्ठों , तथा मित्रो को भगवान परशुराम की जयंती की बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाये !!!
जय भगवान परशुराम जी की
पंडित राकेश शुक्ल शास्त्री