ओ३म् तत्सत श्री ब्रह्मणो द्वितीयप्रहराद्र्धे वैवस्वतमन्वन्तरेअष्टाविंशतितमेकलियुगे कलिप्रथमचरणेआर्यावर्तान्तरैकदेशान्तर्गते जन्बूद्वीपेभरतखण्डे … अत्रेदं कार्यं कृतं क्रियते वा।’
इस संकल्प वाक्य में भरत-खण्ड नाम का होना भी हमारे देश के भारत नाम की महाभारत काल से पूर्व व प्राचीनता का प्रमाण हैं। इस वाक्य में आर्यावर्त के साथ-साथ इस देश को जम्बूद्वीप और भरत खण्ड कहा गया है। इससे यह भी प्रतीत होता है कि हमारा देश भारत जम्बूद्वीप के अन्तर्गत था और संसार में अन्य अनेक महाद्वीप थे। महर्षि दयानन्द ने इस संकल्प वाक्य का दिनांक 19-20 मार्च सन् 1877 ई. को चांदापुर के मेले के अवसर पर ईसाई मत के पादरी स्काट साहब, पादरी नोबिल साहब, पादरी पार्कर साहब और पादरी जान्सन साहब तथा मुसलमानों की ओर से मौलवी मुहम्मद कासम साहब, सैयद अब्दुल मंसूर साहब तथा आर्यधर्म की ओर महर्षि दयानन्द तथा मुन्शी इन्द्रमणि के मध्य हुए शास्त्रार्थ में भी उल्लेख किया है जिससे सृष्टि, वेदोत्पत्ति, मनुष्योत्पत्ति तथा सृष्टिकाल 1,96,08,53,114 वर्षों का ज्ञान शास्त्रार्थ के प्रतिभागियों को कराया जा सके।
हम सब जानते हैं कि रामायण एवं महाभारत हमारे इतिहास के प्राचीन ग्रन्थ हैं। यह ग्रन्थ हमारे ऋषियों, महर्षि बाल्मिकी और महर्षि वेदव्यास जी की रचनायें है। ऋषि ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए तथा चारों वेदों के पूर्ण जानकार योगी होते हैं। इस योग्यता को प्राप्त करने के बाद वह जो कहा करते थे व लिखते थे वह पूर्ण सत्य हुआ करता था। महाभारत का युद्ध आज से 5,150 वर्ष पूर्व कुरूक्षेत्र की भूमि पर पाण्डवों व कौरवों के बीच हुआ था। इसके कुछ समय बाद महर्षि वेदव्यास जी ने “भारत” नाम से इस युद्ध पर आधारित एक इतिहास ग्रन्थ की रचना की जिसमें 24,000 श्लोक थे। यह बात महाभारत ग्रन्थ में स्वयं महर्षि वेदव्यास जी की कही व लिखी हुई है। समय के साथ इसमें प्रक्षेपों द्वारा विस्तार होता गया और अब महाभारत में 1 लाख 25 हजार के लगभग श्लोक मिलते हैं। यहां प्रश्न मात्र यह है कि महर्षि वेदव्यास ने इस इतिहास ग्रन्थ का नाम “भारत” ही क्यों रखा? इसका कारण यही हो सकता है उन दिनों देश का नाम आर्यावत्र्त के साथ-साथ “भारत” प्रसिद्ध था। अतः महर्षि वेदव्यास जी ने अपने इतिहास के इस प्रसिद्ध ग्रन्थ को भारत नाम से सुशोभित किया। उनका उद़देश्य था कि देश के राजनैतिक व सामाजिक वातावरण के साथ उस महायुद्ध का ज्ञान भी समकालीन व भावी पीढि़यों को भली भांति हो सके। हमारे ऋषियों की यह विशेषता दिखाई देती है कि वह अपने ग्रन्थों के सार्थक नाम ही रखते थे। उपनिषद, दर्शन व ब्राह्मण आदि ग्रन्थों के नाम देख कर यह अनुमान सत्य सिद्ध होता है।
इस संकल्प वाक्य में भरत-खण्ड नाम का होना भी हमारे देश के भारत नाम की महाभारत काल से पूर्व व प्राचीनता का प्रमाण हैं। इस वाक्य में आर्यावर्त के साथ-साथ इस देश को जम्बूद्वीप और भरत खण्ड कहा गया है। इससे यह भी प्रतीत होता है कि हमारा देश भारत जम्बूद्वीप के अन्तर्गत था और संसार में अन्य अनेक महाद्वीप थे। महर्षि दयानन्द ने इस संकल्प वाक्य का दिनांक 19-20 मार्च सन् 1877 ई. को चांदापुर के मेले के अवसर पर ईसाई मत के पादरी स्काट साहब, पादरी नोबिल साहब, पादरी पार्कर साहब और पादरी जान्सन साहब तथा मुसलमानों की ओर से मौलवी मुहम्मद कासम साहब, सैयद अब्दुल मंसूर साहब तथा आर्यधर्म की ओर महर्षि दयानन्द तथा मुन्शी इन्द्रमणि के मध्य हुए शास्त्रार्थ में भी उल्लेख किया है जिससे सृष्टि, वेदोत्पत्ति, मनुष्योत्पत्ति तथा सृष्टिकाल 1,96,08,53,114 वर्षों का ज्ञान शास्त्रार्थ के प्रतिभागियों को कराया जा सके।
हम सब जानते हैं कि रामायण एवं महाभारत हमारे इतिहास के प्राचीन ग्रन्थ हैं। यह ग्रन्थ हमारे ऋषियों, महर्षि बाल्मिकी और महर्षि वेदव्यास जी की रचनायें है। ऋषि ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए तथा चारों वेदों के पूर्ण जानकार योगी होते हैं। इस योग्यता को प्राप्त करने के बाद वह जो कहा करते थे व लिखते थे वह पूर्ण सत्य हुआ करता था। महाभारत का युद्ध आज से 5,150 वर्ष पूर्व कुरूक्षेत्र की भूमि पर पाण्डवों व कौरवों के बीच हुआ था। इसके कुछ समय बाद महर्षि वेदव्यास जी ने “भारत” नाम से इस युद्ध पर आधारित एक इतिहास ग्रन्थ की रचना की जिसमें 24,000 श्लोक थे। यह बात महाभारत ग्रन्थ में स्वयं महर्षि वेदव्यास जी की कही व लिखी हुई है। समय के साथ इसमें प्रक्षेपों द्वारा विस्तार होता गया और अब महाभारत में 1 लाख 25 हजार के लगभग श्लोक मिलते हैं। यहां प्रश्न मात्र यह है कि महर्षि वेदव्यास ने इस इतिहास ग्रन्थ का नाम “भारत” ही क्यों रखा? इसका कारण यही हो सकता है उन दिनों देश का नाम आर्यावत्र्त के साथ-साथ “भारत” प्रसिद्ध था। अतः महर्षि वेदव्यास जी ने अपने इतिहास के इस प्रसिद्ध ग्रन्थ को भारत नाम से सुशोभित किया। उनका उद़देश्य था कि देश के राजनैतिक व सामाजिक वातावरण के साथ उस महायुद्ध का ज्ञान भी समकालीन व भावी पीढि़यों को भली भांति हो सके। हमारे ऋषियों की यह विशेषता दिखाई देती है कि वह अपने ग्रन्थों के सार्थक नाम ही रखते थे। उपनिषद, दर्शन व ब्राह्मण आदि ग्रन्थों के नाम देख कर यह अनुमान सत्य सिद्ध होता है।