रक्षाबंधन उत्सव

भारत माता की जय

Saturday, 17 March 2018

जय मां जगजननी

।। श्री गणेशाय नमः ।। ।। श्री परमात्मने नमः ।।                                                                                         
     
  ।। जय मां जगजननी ।।
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी l
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ll
पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च l
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ll
नवमं सिद्धि दात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः l
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मनः ll
एक बार प्रजापति दक्ष ने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया। इसमें उन्होंने सारे देवताओं को अपना-अपना यज्ञ-भाग प्राप्त करने के लिए निमंत्रित किया, किन्तु शंकरजी को उन्होंने इस यज्ञ में निमंत्रित नहीं किया। सती ने जब सुना कि उनके पिता एक अत्यंत विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं, तब वहां जाने के लिए उनका मन विकल हो उठा।
अपनी यह इच्छा उन्होंने शंकरजी को बताई। सारी बातों पर विचार करने के बाद उन्होंने कहा- प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट हैं। अपने यज्ञ में उन्होंने सारे देवताओं को निमंत्रित किया है। उनके यज्ञ-भाग भी उन्हें समर्पित किए हैं, किन्तु हमें जान-बूझकर नहीं बुलाया है। कोई सूचना तक नहीं भेजी है। ऐसी स्थिति में तुम्हारा वहां जाना किसी प्रकार भी श्रेयस्कर नहीं होगा।''
शंकर जी के इस उपदेश से सती का प्रबोध नहीं हुआ। पिता का यज्ञ देखने, वहां जाकर माता और बहनों से मिलने की उनकी व्यग्रता किसी प्रकार भी कम न हो सकी। उनका प्रबल आग्रह देखकर भगवान शंकरजी ने उन्हें वहां जाने की अनुमति दे दी।
सती ने पिता के घर पहुंचकर देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम के साथ बातचीत नहीं कर रहा है। सारे लोग मुंह फेरे हुए हैं। केवल उनकी माता ने स्नेह से उन्हें गले लगाया। बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव भरे हुए थे।
परिजनों के इस व्यवहार से उनके मन को बहुत क्लेश पहुंचा। उन्होंने यह भी देखा कि वहां सब ओर भगवान शंकर जी के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है। दक्ष ने उनके प्रति कुछ अपमानजनक वचन भी कहे। यह सब देखकर सती का हृदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से संतप्त हो उठा। उन्होंने सोचा भगवान शंकरजी की बात न मान, यहां आकर मैंने बहुत बड़ी गलती की है।
वे अपने पति भगवान शंकर के इस अपमान को सह न सकीं। उन्होंने अपने उस रूप को तत्क्षण वहीं योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया। वज्रपात के समान इस दारुण-दुःखद घटना को सुनकर शंकरजी ने क्रुद्ध होकर अपने गणों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णतः विध्वंस करा दिया।
सती ने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म कर अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। इस बार वे ''शैलपुत्री'' नाम से विख्यात हुर्ईं। पार्वती, हैमवती भी उन्हीं के नाम हैं। उपनिषद् की एक कथा के अनुसार इन्हीं ने हैमवती स्वरूप से देवताओं का गर्व-भंजन किया था।''शैलपुत्री'' देवी का विवाह भी शंकरजी से ही हुआ। पूर्वजन्म की भांति इस जन्म में भी वे शिवजी की ही अर्द्धांगिनी बनीं। 

नव दुर्गाओं में प्रथम शैलपुत्री दुर्गा रूप का पूजन करने के उपरान्त “ ॐ प्रथमं शैलपुत्र्यै नमः’’ मन्त्र का जप करना चाहिये और भोग आदि लगाकर कर्पूर आरती करनी चाहिए । मां शैलपुत्री की आराधना से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं।
          ।। जयतु सनातन धर्मः ।।
             ।। जय मां शैलपुत्री ।।

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