रक्षाबंधन उत्सव

भारत माता की जय

Wednesday, 2 May 2018

जयतु सनातन धर्मः

।। श्री गणेशाय नमः ।। ।। श्री परमात्मने नमः ।।                                                                                                                 ।। जयतु सनातन धर्मः ।।

यतो धर्म: ततो जय:
         अर्थात
जहाँ धर्म है वहाँ विजय है।

महाभारत मे अनेक स्थानों पर, यह बात कही गई है।इस पर विचार करने पर सर्वप्रथम धर्म का शाब्दिक अर्थ जानना पड़ेगा।”धृ” मे “मन्” प्रत्यय लगा कर धर्म शब्द बना है ,जिसमें “धृ”धातु का अर्थ धारण और पोषण करना है।
शाब्दिक दृष्टि से मतलब हुआ कि धर्म वह है, जो मनुष्य को मनुष्यता धारण कराए और आजीवन उस मनुष्यता को ही परिपुष्ट करे।इस प्रकार फलित हुआ कि, धर्म मानव जीवन का वह तत्व है, जिससे वह मनुष्य बनता है।
तब प्रश्न उठा कि वह क्या है जिससे मनुष्य की मनुष्यता सुरक्षित रहती है, तो उत्तर आया ,आचरण। (आचार:परमो धर्म: ) मनुष्य जीवन का आदर्श ही है मानवीय विचाराचार ।
गीतोक्त बात -स्वधर्मे निधनं
श्रेय: परधर्मो भयावह:” ने और भी स्पष्ट किया कि यदि हम मानवीय आचारादि त्याग कर अमानवीय व्यवहार ग्रहण करें तो हम राक्षस/पशु कहे जाने योग्य होंगे।इसीलिये अपने मानव जीवन मूल्यों-त्याग, करूणा, दया, क्षमा, धैर्य, सन्तोष आदि का पालन करते हुए उसके लिये मर मिटना, श्रेयस्कर है,नहीं तो संग्रह और असन्तोष आदि तो भयंकर दु:ख के ही कारण बनते हैं।
अतः सर्वस्व न्योछावर करके भी “धर्म”(मानवीय कर्तव्य कर्म पूर्वक सत्याचरण)मार्ग पर ही चलने मे विजय प्राप्ति सुनिश्चित है।और अन्तिम बात तो ये है कि धर्म न केवल इस जन्म मे वास्तविक विजयकारक है, अपितु अन्यजन्म मे मानव का एकमात्र साथी भी है-देहश्चितायां परलोक मार्गे धर्मानुगो गच्छति जीव एक:।

।।हरि शरणम्।।
     
     
                  ।। जय श्री राधे।।

Tuesday, 1 May 2018

जय श्री राधे श्याम

।। श्री गणेशाय नमः ।। ।। श्री परमात्मने नमः ।।                                                                                                             ।। पोस्ट- ९८ ।। ।। जय श्री कृष्ण ।।
अजब हैरान हूं भगवन! तुम्हें कैसे रिझाऊं मैं
कोई वस्तु नहीं ऐसी, जिसे सेवा में लाऊं मैं.
करें किस तौर आवाहन कि तुम मौजूद हो हर जां,
निरादर है बुलाने को, अगर घंटी बजाऊं मैं.
तुम्हीं हो मूर्ति में भी, तुम्हीं व्यापक हो फूलों में,
भला भगवान  पर भगवान को कैसे चढाऊं मैं.
लगाना भोग कुछ तुमको, यह एक अपमान करना है,
खिलाता है जो सब जग को, उसे कैसे खिलाऊं मैं.
तुम्हारी ज्योति से रोशन हैं, सूरज, चांद और तारे,
महा अन्धेर है कैसे तुम्हें दीपक दिखाऊं मैं.
भुजाएं हैं, न गर्दन है, न सीना है न पेशानी,
तुम हो निर्लेप नारायण, कहां चंदन लगाऊँ मैं.

बड़े नादान है वे जन जो गढ़ते आपकी मूरत
बनाता है जो सब जग को, उसे कैसे बनाऊँ मैं.    
अजब हैरान हूं भगवन! तुम्हें कैसे रिझाऊं मैं
कोई वस्तु नहीं ऐसी, जिसे सेवा में लाऊं मैं.
  
            ।। जयतु सनातन धर्मः ।।
                  ।। जय श्री राधे।।

तुलसीदास

  “पन्द्रह सौ चौवन विसे कालिन्दी के तीर । श्रावण शुक्ला सप्तमी , तुलसी धरयो शरीर||" तुलसीदास का जन्म उत्तर प्रदेश के बांदा...