रक्षाबंधन उत्सव

भारत माता की जय

Monday, 19 August 2019

जय श्री राम

"वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ॥
कालिदास ~~रघुवंशम्
भावार्थ: कालिदास कहते हैं मैं संसार की माता पार्वती और पिता शिव को प्रणाम करता हूँ जो वाणी (शब्द )और अर्थ के समान अलग कहलाते हुए भी परस्पर मिले हुए हैं, एक ही हैं।


Sunday, 11 August 2019

जय भोलेनाथ

श्रीगोस्वामितुलसीदासकृतं श्रीरुद्राष्टकं

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं
विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् ।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं
चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ॥१॥
निराकारमोङ्करमूलं तुरीयं
गिराज्ञानगोतीतमीशं गिरीशम् ।
करालं महाकालकालं कृपालं
गुणागारसंसारपारं नतोऽहम् ॥२॥
तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभिरं
मनोभूतकोटिप्रभाश्री शरीरम् ।
स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारुगङ्गा
लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा ॥३॥
चलत्कुण्डलं भ्रूसुनेत्रं विशालं
प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं
प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि ॥४॥
प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं
अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशं ।
त्र्यःशूलनिर्मूलनं शूलपाणिं
भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् ॥५॥
कलातीतकल्याण कल्पान्तकारी
सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी ।
चिदानन्दसंदोह मोहापहारी
प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥६॥
न यावद् उमानाथपादारविन्दं
भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं
प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं ॥७॥
न जानामि योगं जपं नैव पूजां
नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम् ।
जराजन्मदुःखौघ तातप्यमानं
प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो ॥८॥
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥९॥

॥ इति श्रीगोस्वामितुलसीदासकृतं श्रीरुद्राष्टकं सम्पूर्णम् ॥

Friday, 2 August 2019

दशावतार

मत्स्य: कूर्मो वराहश्च नरसिंहश्च वामन: रामो रामश्च रामश्च कृष्ण: कल्कि च ते दश।

श्रीजयदेव गोस्वामी विरचित श्रीगीतगोविन्दम दशावतार खण्ड श्रीमद्भक्तिप्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराजजीके अनुगृहीत त्रिदण्डिस्वामी श्रीश्रीमद्भक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी महाराज द्वारा सम्पादित एवं डॉ विनय कुमार श्रीवास्तव द्वारा संकलित
12वीं शताब्दी के कवि जयदेव द्वारा रचित गीतगोविन्द 12अध्यायों वाला एक गीतिकाव्य है जिसे प्रबंध कहे जाने वाले चौबीस भागों में विभाजित किया गया है । प्रथम अध्याय में चार परिचयात्मक श्लोक हैं,जिनके बाद दशावतार वर्णन के रूप में ग्यारह अष्टपदी हैं जो भगवान विष्णु के दस अवतारों के उद्देश्यों का वर्णन करते हैं और अंत में रचना के निर्बाध समापन के लिए समर्पण किया गया है।
प्रलय पयोधि जले धृतवान् असि वेदम् |

विहित वहित्र चरित्रम् अखेदम् ||

केशव धृत मीन शरीर जय जगत् ईश हरे ||  १ ||
अनुवाद - हे जगदीश्वर! हे हरे! नौका (जलयान) जैसे बिना किसी खेदके सहर्ष सलिलस्थित किसी वस्तुका उद्धार करती है, वैसे ही आपने बिना किसी परिश्रमके निर्मल चरित्रके समान प्रलय जलधिमें मत्स्यरूपमें अवतीर्ण होकर वेदोंको धारणकर उनका उद्धार किया है। हे मत्स्यावतारधारी श्रीभगवान्! आपकी जय हो || १ ||
क्षितिः अति विपुल तरे तव तिष्ठति पृष्ठे |

        धरणि धरण किण चक्र गरिष्ठे  ||                  

केशव धृत कच्छप रूप जय जगदीश हरे || २ ||
अनुवाद - हे केशिनिसूदन! हे जगदीश! हे हरे! आपने कूर्मरूप अंगीकार कर अपने विशाल पृष्ठके एक प्रान्तमें पृथ्वीको धारण किया है, जिससे आपकी पीठ व्रणके चिन्होंसे गौरवान्वित हो रही है। आपकी जय हो || २ ||
वसति दशन शिखरे धरणी तव लग्ना |

शशिनि कलंक कल इव निमग्ना ||

केशव धृत सूकर रूप जय जगदीश हरे || ३ ||


अनुवाद - हे जगदीश! हे केशव! हे हरे! हे वराहरूपधारी ! जिस प्रकार चन्द्रमा अपने भीतर कलंकके सहित सम्मिलित रूपसे दिखाई देता है, उसी प्रकार आपके दाँतों के ऊपर पृथ्वी अवस्थित है || ३ ||
तव कर कमल वरे नखम् अद्भुत शृंगम् |

दलित हिरण्यकशिपु  तनु भृंगम् ||

केशव धृत नर हरि रूप जय जगदीश हरे || ४ ||
अनुवाद - हे जगदीश्वर! हे हरे ! हे केशव ! आपने नृसिंह रूप धारण किया है। आपके श्रेष्ठ करकमलमें नखरूपी अदभुत श्रृंग विद्यमान है, जिससे हिरण्यकशिपुके शरीरको आपने ऐसे विदीर्ण कर दिया जैसे भ्रमर पुष्पका विदारण कर देता है,आपकी जय हो || ४ ||
छलयसि विक्रमणे बलिम् अद्भुत वामन |

पद नख नीर जनित जन पावन ||

केशव धृत वामन रूप जय जगदीश हरे || ५ ||


अनुवाद - हे सम्पूर्ण जगतके स्वामिन् ! हे श्रीहरे ! हे केशव! आप वामन रूप धारणकर तीन पग धरतीकी याचनाकी क्रियासे बलि राजाकी वंचना कर रहे हैं। यह लोक समुदाय आपके पद-नख-स्थित सलिलसे पवित्र हुआ है। हे अदभुत वामन देव ! आपकी जय हो || ५ ||
क्षत्रिय रुधिरमये जगत् अपगत पापम् |

स्नपयसि पयसि शमित भव तापम् ||

केशव धृत भृघु पति रूप जय जगदीश हरे || ६ ||


अनुवाद - हे जगदीश! हे हरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने भृगु (परशुराम) रूप धारणकर क्षत्रियकुलका विनाश करते हुए उनके रक्तमय सलिलसे जगतको पवित्र कर संसारका सन्ताप दूर किया है। हे भृगुपतिरूपधारिन् , आपकी जय हो || ६ ||
वितरसि दिक्षु रणे दिक् पति कमनीयम् |

दश मुख मौलि बलिम् रमणीयम् ||

केशव धृत राम शरीर जय जगदीश हरे || ७ ||


अनुवाद - हे जगत् स्वामिन् श्रीहरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने रामरूप धारण कर संग्राममें इन्द्रादि दिक्पालोंको कमनीय और अत्यन्त मनोहर रावणके किरीट भूषित शिरोंकी बलि दशदिशाओंमें वितरित कर रहे हैं । हे रामस्वरूप ! आपकी जय हो || ७ ||
वहसि वपुषि विशदे वसनम् जलद अभम् |

हल हति भीति मिलित यमुनआभम् ||

केशव धृत हल धर रूप जय जगदीश हरे || ८ ||


अनुवाद - हे जगत् स्वामिन् ! हे केशिनिसूदन! हे हरे ! आपने बलदेवस्वरूप धारण कर अति शुभ्र गौरवर्ण होकर नवीन जलदाभ अर्थात् नूतन मेघोंकी शोभाके सदृश नील वस्त्रोंको धारण किया है। ऐसा लगता है, यमुनाजी मानो आपके हलके प्रहारसे भयभीत होकर आपके वस्त्रमें छिपी हुई हैं । हे हलधरस्वरूप ! आपकी जय हो || ८ ||
निन्दति यज्ञ विधेः अ ह ह श्रुति जातम् |

सदय हृदय दर्शित पशु  घातम् ||

केशव धृत बुद्ध शरीर जय जगदीश हरे || ९ ||
अनुवाद - हे जगदीश्वर! हे हरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने बुद्ध शरीर धारण कर सदय और सहृदय होकर यज्ञ विधानों द्वारा पशुओंकी हिंसा देखकर श्रुति समुदायकी निन्दा की है। आपकी जय हो || ९ ||
म्लेच्छ निवह निधने कलयसि करवालम् |

धूम केतुम् इव किम् अपि करालम् ||

केशव धृत कल्कि शरीर जय जगदीश हरे || १० ||


अनुवाद - हे जगदीश्वर श्रीहरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने कल्किरूप धारणकर म्लेच्छोंका विनाश करते हुए धूमकेतुके समान भयंकर कृपाणको धारण किया है । आपकी जय हो || १० ||
श्री जयदेव कवेः इदम् उदितम् उदारम् |

शृणु सुख दम् शुभ दम् भव सारम् ||

केशव धृत दश विध रूप जय जगदीश हरे || ११ ||
अनुवाद - हे जगदीश्वर ! हे श्रीहरे ! हे केशिनिसूदन ! हे दशबिध रूपोंको धारण करनेवाले भगवन् ! आप मुझ जयदेव कविकी औदार्यमयी, संसारके सारस्वरूप,सुखप्रद एवं कल्याणप्रद स्तुतिको सुनें || ११ ||
वेदान् उद्धरते जगत् निवहते भू गोलम् उद् बिभ्रते

दैत्यम् दारयते बलिम् च्छलयते क्षत्र क्षयम् कुर्‌वते
पौलस्त्यम् जयते हलम् कलयते कारुण्यम् आतन्वते
म्लेच्छान् मूर्च्छयते दश अकृति कृते कृष्णाय  तुभ्यम् नमः || १२ ||

अनुवाद - वेदोंका उद्धार करनेवाले, चराचर जगतको धारण करनेवाले, भूमण्डलका उद्धार करनेवाले, हिरण्यकशिपुको विदीर्ण करनेवाले, बलिको छलनेवाले, क्षत्रियोंका क्षय करनेवाले, पौलस्त (रावण) पर विजय प्राप्त करनेवाले, हल नामक आयुधको धारण करनेवाले, करुणाका विस्तार करनेवाले, म्लेच्छोंका संहार करनेवाले, इस दश प्रकारके शरीर धारण करनेवाले हे श्रीकृष्ण ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ || १२ ||
इति दशावतार कीर्त्तिधवलो नाम प्रथमः प्रबन्धः।

इति श्रीगीतगोविन्दे प्रथमः

तुलसीदास

  “पन्द्रह सौ चौवन विसे कालिन्दी के तीर । श्रावण शुक्ला सप्तमी , तुलसी धरयो शरीर||" तुलसीदास का जन्म उत्तर प्रदेश के बांदा...