रक्षाबंधन उत्सव

भारत माता की जय

Thursday, 3 September 2020

भारतीय संस्कृति में तुलसी

भारतीय संस्कृति में तुलसी के पौधे का बहुत महत्व है।



तुलसी की पूजा करने से मन शांत रहता है। रोजाना प्रातः काल तुलसी के दर्शन करने से आरोग्यता मिलता है। इसकी दो प्रधान प्रजातियाँ हैं- श्री तुलसी जिसकी पत्तियाँ हरी होती हैं तथा कृष्णा तुलसी जिसकी पत्तियाँ निलाभ-कुछ बैंगनी रंग लिए होती हैं। श्री तुलसी के पत्र तथा शाखाएँ श्वेताभ होते हैं जबकि कृष्ण तुलसी के पत्रादि कृष्ण रंग के होते हैं। गुण, धर्म की दृष्टि से काली तुलसी को ही श्रेष्ठ माना गया है, परन्तु अधिकांश विद्वानों का मत है कि दोनों ही गुणों में समान हैं। 

तुलसी का पौधा हिंदू धर्म में पवित्र माना जाता है और लोग इसे अपने घर के आँगन या दरवाजे पर या बाग में लगाते हैं। तुलसी के पत्तों को आयुर्वेद में गुणों की खान माना जाता है। इसलिए इसे भगवान को लगाए जाने वाले भोग में भी शामिल किया जाता है, और प्रसाद के रूप में बांटा जाता है।


तुलसी को पूजनीय माना जाता है, धार्मिक महत्व होने के साथ-साथ तुलसी औषधीय गुणों से भी भरपूर है। आयुर्वेद में तो तुलसी को उसके औषधीय गुणों के कारण विशेष महत्व दिया गया है। तुलसी ऐसी औषधि है जो ज्यादातर बीमारियों में काम आती है। इसका उपयोग सर्दी-जुकाम, खॉसी, दंत रोग और श्वास सम्बंधी रोग के लिए बहुत ही फायदेमंद माना जाता है।
मृत्यु के समय व्यक्ति के गले में कफ जमा हो जाने के कारण श्वसन क्रिया एवम बोलने में रुकावट आ जाती है। तुलसी के पत्तों के रस में कफ फाड़ने का विशेष गुण होता है इसलिए शैया पर लेटे व्यक्ति को यदि तुलसी के पत्तों का एक चम्मच रस पिला दिया जाये तो व्यक्ति के मुख से आवाज निकल सकती है।


तुलसी माला १०८ गुरियों की होती है। एक गुरिया अतिरिक्त माला के जोड़ पर होती है इसे गुरु की गुरिया कहते हैं। तुलसी माला धारण करने से ह्रदय को शांति मिलती है।

तुलसी से हमारी पूरी हेल्थ अच्छी और स्वस्थ रहती है , तो क्यों न हम हर रोज सही मात्रा में तुलसी ले , जिससे हमारे शरीर को सभी नुट्रिएंट्स मिल पाएं और हमारा शरीर  स्वस्थ रहे।

पं राकेश शुक्ल शास्त्री


Wednesday, 2 September 2020

कुशलक्षेम या कल्याण का प्रतीक ही स्वस्तिक है।

स्वस्तिक श्रीगणेश का ही प्रतीक स्वरूप है। किसी भी पूजन कार्य काे शुरू करने से पहले स्वस्तिक का चिन्ह जरूरी होता है। ज्योतिषी एवं वास्तुविद पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की शास्त्रों के अनुसार श्री गणेश प्रथम पूजनीय हैं और स्वस्तिक का पूजन करने का मतलब है कि हम श्रीगणेश का पूजन कर उनसे विनती करते हैं कि हमारा पूजन कार्य सफल हो।
मान्यता है कि यदि घर के मुख्य द्वार पर दोनों ओर अष्ट धातु का स्वास्तिक लगाया जाए और द्वार के ठीक ऊपर मध्य में तांबे का स्वास्तिक लगाया जाए तो इससे समस्त वास्तुदोष दूर हो जाते हैं। स्वास्तिक के प्रयोग से धनवृद्धि, गृहशांति, रोग निवारण, वास्तुदोष निवारण, भौतिक कामनाओं की पूर्ति, तनाव, अनिद्रा व चिन्ता से मुक्ति मिलती है। किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत से पहले सर्वप्रथम स्वास्तिक को ही अंकित किया जाता है। ज्योतिष में इस मांगलिक चिह्न को प्रतिष्ठा, मान-सम्मान, सफलता व उन्नति का प्रतीक माना गया है।
स्वस्तिक अत्यन्त प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति में मंगल-प्रतीक माना जाता रहा है। इसीलिए किसी भी शुभ कार्य को करने से पहले स्वस्तिक चिह्न अंकित करके उसका पूजन किया जाता है। स्वस्तिक शब्द सु+अस+क से बना है। 'सु' का अर्थ अच्छा, 'अस' का अर्थ 'सत्ता' या 'अस्तित्व' और 'क' का अर्थ 'कर्त्ता' या करने वाले से है। इस प्रकार 'स्वस्तिक' शब्द का अर्थ हुआ 'अच्छा' या 'मंगल' करने वाला। 'अमरकोश' में भी 'स्वस्तिक' का अर्थ आशीर्वाद, मंगल या पुण्यकार्य करना लिखा है। अमरकोश के शब्द हैं - 'स्वस्तिक, सर्वतोऋद्ध' अर्थात् 'सभी दिशाओं में सबका कल्याण हो।' इस प्रकार 'स्वस्तिक' शब्द में किसी व्यक्ति या जाति विशेष का नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व के कल्याण या 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना निहित है। 'स्वस्तिक' शब्द की निरुक्ति है - 'स्वस्तिक क्षेम कायति, इति स्वस्तिकः' अर्थात् 'कुशलक्षेम या कल्याण का प्रतीक ही स्वस्तिक है।

स्वस्तिक की चार रेखाएं ऋग्, यजु, साम और अथर्व आदि चारों वेद, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष आदि चारों सिद्धांत एवं ज्ञान, कर्म, योग और भक्ति आदि चारों मार्गों की भी प्रतीक हैं। इस प्रकार से मनुष्य के जीवन चक्र जिसमें शैशव, किशोरावस्था, जवानी और बुढापा या कहें जीवन के चारों आश्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास का प्रतीक भी स्वस्तिक माना जाता है। 
धार्मिक कार्यों में रोली, हल्दी या सिंदूर से बना स्वस्तिक आत्मसंतुष्‍टी देता है। त्योहारों पर द्वार के बाहर रंगोली के साथ कुमकुम, सिंदूर या रंगोली से बनाया गया स्वस्तिक मंगलकारी होता है। इसे बनाने से देवी और देवता घर में प्रवेश करते हैं। गुरु पुष्य या रवि पुष्य में बनाया गया स्वस्तिक शांति प्रदान करता है।

                    पं राकेश शुक्ल शास्त्री

Tuesday, 1 September 2020

बोध कथा

सुधाकर की शहर के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में से एक थे, उनका सरल स्वभाव और लोककल्याण की भावना लोगों की चर्चा का विषय हुआ करतें थे। एक शाम अचानक इमेरजैंसी गाड़ी द्वारा एक वृद्ध ( अध्यापक हरिशंकर) को सड़क दुघर्टना में चोट लगने के उपरांत गंभीर अवस्था में अस्पताल में भर्ती के लाया गया। तत्काल इमेरजैंसी सेवा में लगे डॉ लोग इलाज करने लगे परन्तु ज्यादा रक्तस्राव होने के कारण वृद्ध की स्थति बिगड़ती जा रही थी । जो खुन का ग्रुप वृद्ध का था संयोग से उस समय अस्पताल में उपलब्ध नहीं था, अब स्थिति नाजुक बनती जा रही थी। अगर तत्काल खुन नहीं मिला तो वृद्ध को बचा पाना मुश्किल था, तभी डॉ सुधाकर को पता चला कि जो खुन का ग्रुप वृद्ध का वही खुन का ग्रुप हमारा, डॉ सुधाकर बिना सोचे समझे वृद्ध को अपना खुन देने का निर्णय किया, इस तरह खुन देकर डॉ सुधाकर ने वृद्ध के प्राण बचाए।

कुछ दिन बाद डॉ सुधाकर के मेज पर उस वृद्ध की फाइल लाईं गई, फाइल को देखकर डॉ सुधाकर को पता चला कि वृद्ध व्यक्ति कोई और हमारे गुरु जी हैं।

डॉ सुधाकर अपनी पिछले जीवन के बारे में सोचने लगें। डॉ सुधाकर का बचपन गरीबी और अभाव में बिता था। वृद्ध ( अध्यापक हरिशंकर) का डॉ सुधाकर के ऊपर बहुत सारे उपकार है , बचपन में अध्यापक हरिशंकर डॉ सुधाकर को पुस्तक, फीस और अध्ययन सम्पुर्ण सहयोग के कारण  सुधाकर जैसे सामान्य लड़का डॉ की पढ़ाई पुरी कर एक सफल डाक्टर के रूप में शहर प्रतिष्ठित व्यक्तियों में से एक है। यह बात डाक्टर कभी नहीं भुले थे आज जिस परिस्थिति में हुं सब गुरु जी के कारण प्राप्त हुआ। 

परंतु डॉ सुधाकर को यह समझ में नहीं आ रहा था कि गुरु जी इस परिस्थिति में कैसे आए चलकर गुरु जी से पता किया जाएं। 

अब वृद्ध अध्यापक की स्वास्थ में बहुत सुधार हो गया था।डॉ सुधाकर ने वृद्ध (अध्यापक हरिशंकर) के पास जाकर उनको प्रणाम किया और अपना परिचय दिया और गुरु जी से उनके बारे वृतांत से पुछा तो गुरु जी फफक कर रोने लगे काफी देर ढाढस बंधाने के बाद बोले , " बेटा सुधाकर मैं बहुत अभागा हूं, जो तुम्हारे जैसा पुत्र नहीं मिला, जब तक हमारी नौकरी थी हमारे परिजन हमारे धन का दुरूपयोग किया,सारा धन लेकर हमको घर से बाहर निकल दिया। कभी इस शहर भीख मांगते कभी उस शहर भिख मांगकर गुजारा करने लगा, सडक के किनारे से जा रहा था अचानक एक गाड़ी आई और हमको धक्का दिया और बेहोश हो गया होश में आया तो पता चला कि अस्पताल में हुं, फिर तुम मिल गये।

डॉ सुधाकर की आंखों से आंसू गिरने लगें, और अपने सम्भालते हुए डॉ सुधाकर ने कहा कि," गुरु जी अब आप को कहीं नहीं जाना है आप हमारे घर चलिए और हमारे साथ रहिए। आजीवन हम आपकी सेवा करेंगे जो भी हुं आप बदौलत हुं। 

डॉ सुधाकर अपनी कार निकालें और अध्यापक हरिशंकर जी को अपने साथ लेकर अपने घर को गये।

सीख -
 १.अपने ऊपर किए उपकार को कभी भुलना नहीं चाहिए।
२.परोपकार की भावना से काम करना चाहिए।
३. अगर आप किसी की मदद करते हैं तो किसी ना किसी रूप में आपका भला ही होगा।

संतुलित आहार जीवन का आधार

1.भोजन को चबा कर खाएं .
2.खाना खाते समय बीच में पानी ना पीएं.
3. भोजन करने के तुरंत बाद पानी ना पीएं .
4. खाना खाने के बाद गुनगुना पानी पीएं.
5. भोजन करने के बाद दांत साफ करें.

सुबह का नाश्ता- --  पांच बजे से दस बजे के बीच
दोपहर का भोजन --- 12 बजे से 1 बजे के बीच
रात का भोजन --- शाम छह बजे से आठ बजे के बीच

अगर नाश्ता करने के सही समय की बात करें तो सुबह जगने के दो घंटे के भीतर नाश्ता कर लेना चाहिए। सुबह नाश्ता करने का उत्तम समय पांच बजे से दस बजे के बीच होता है। इसके बाद नाश्ता नहीं करना चाहिए। 
फल, जूस एवं अंकुरित दालों का सेवन


दोपहर का भोजन राजा की तरह करना चाहिए I बारह बजे से बारह बजकर पैंतालिस मिनट तक भोजन कर लेना चाहिए। दोपहर के भोजन के लिए यही अच्छा समय माना जाता है। हालांकि आपको यह ध्यान रखना चाहिए कि आपके नाश्ते और दोपहर के भोजन के बीच चार घंटे का अंतराल होना चाहिए।
रात का भोजन अगर संभव हो तो आठ बजे से पहले कर लेना चाहिए। आपको रात का भोजन करने और अपने सोने के समय के बीच कम से कम तीन घंटे का अंतराल रखना चाहिए। रात का भोजन साढ़े आठ या नौ बजे के बाद ना करें तो बेहतर है।
जय अन्नपूर्णा माता की

Monday, 2 March 2020

जय श्री हनुमान

कैलाश पर्वत से उत्तर दिशा की ओर एक जगह है, जहां हनुमान जी आज भी निवास करते हैं। हनुमान जी के इस निवास स्थल का वर्णन कई ग्रंथों और पुराणों में भी मिलता है। हनुमान जी को मां सीता से अमरता का वरदान प्राप्त हुआ था। जब वे श्रीराम का संदेश लेकर माता सीता के पास पहुंचे थे, तब मां सीता ने उन्हें अमर होने का यह वर दिया था।

पुराणों के अनुसार, कलियुग में हनुमान जी गंधमादन पर्वत पर निवास करते हैं। एक कथा के अनुसार, अपने अज्ञातवास के समय हिमवंत पार करके पांडव गंधमादन के पास पहुंचे थे। एक बार भीम सहस्रदल कमल लेने के लिए गंधमादन पर्वत के वन में पहुंचें, तब उन्होंने हनुमान जी को वहां आराम करते देखा तो भीम ने उनसे अपनी पूंछ को मार्ग से हटाने के लिए कहा तो हनुमान जी ने कहा कि तुम स्वयं ही हटा लो लेकिन भीम अपनी पूरी ताकत लगाकर भी उनकी पूंछ हटा नहीं पाया था।

शास्त्रों में बताया गया है कि गंधमादन पर्वत कैलाश पर्वत के उत्तर में स्थित है, जहां महर्षि कश्यप ने तपस्या की थी। इस पर्वत पर गंधर्व, किन्नरों, अप्सराओं और सिद्घ ऋषियों का निवास है। इसके शिखर पर किसी वाहन से पहुंचना असंभव माना जाता है।

जय जय श्री राम
जय श्री हनुमान

Sunday, 1 March 2020

दुष्यंत और शकुंतला पुत्र भरत

दुष्यंत एक बार शिकार खेलते हुए कण्व ॠषि के आश्रम में जा पहुँचे। वहाँ मेनका अप्सरा के गर्भ से उत्पन्न विश्वामित्र की अति सुंदरी कन्या शकुन्तला पर मुग्ध हो गए। दोनों ने गंधर्व विवाह कर लिया, और उसे वहीं छोड़कर अपनी राजधानी लौट गया।
शकुंतला का लालन-पालन कण्व ऋषि ने किया था, क्योंकि मेनका उसे वन में छोड़ गयी थी। कण्व बाहर गये हुए थे। लौटने पर उनको सब समाचार विदित हुए।
शकुंतला ने पुत्र को जन्म दिया। कण्व ने उनको नगर पहुँचाने की व्यवस्था कीं पहले तो दुष्यंत ने उसे ग्रहण नहीं किया, किन्तु बाद में आकाशवाणी होने पर उसे अपनी भूल का पता चला और शकुन्तला को पतिगृह में स्थान मिला।
पुरुवंश के राजा दुष्यंत और शकुन्तला के पुत्र भरत की गणना 'महाभारत' में वर्णित सोलह सर्वश्रेष्ठ राजाओं में होती है। मान्यता है कि इसी के नाम पर इस देश का नाम 'भारतवर्ष' पड़ा। इसका एक नाम 'सर्वदमन' भी था क्योंकि इसने बचपन में ही बड़े-बड़े राक्षसों, दानवों और सिंहों का दमन किया था। और अन्य समस्त वन्य तथा पर्वतीय पशुओं को भी सहज ही परास्त कर अपने अधीन कर लेते थे। अपने जीवन काल में उन्होंने यमुना, सरस्वती तथा गंगा के तटों पर क्रमश: सौ, तीन सौ तथा चार सौ अश्वमेध यज्ञ किये थे। प्रवृत्ति से दानशील तथा वीर थे। राज्यपद मिलने पर भरत ने अपने राज्य का विस्तार किया। प्रतिष्ठान के स्थान पर हस्तिनापुर को राजधानी बनाया। भरत का विवाह विदर्भराज की तीन कन्याओं से हुआ था। जिनसे उन्हें नौ पुत्रों की प्राप्ति हुई।

तुलसीदास

  “पन्द्रह सौ चौवन विसे कालिन्दी के तीर । श्रावण शुक्ला सप्तमी , तुलसी धरयो शरीर||" तुलसीदास का जन्म उत्तर प्रदेश के बांदा...