राजा हरिश्चंद्र अयोध्या के इक्क्षवाकू वंश (सूर्य वंश) के प्रसिद्ध त्रेता युग के राजा थे. इनके पिता जी का नाम सत्यव्रत था. इनकी पत्नी का नाम तारा और पुत्र का रोहित था।इनके गुरु ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जी थे। इनके राज्य में सब जगह सुख और शांति थी।सभी पौराणिक ग्रंथो में हरिश्चंद्र के सत्य व्रत की कथा का प्रभावकारी वर्णन मिलता है। कहा जाता कि सपने में भी वे जो बात कह देते थे उसका पालन निश्चित रुप से करते थे। उनके बारे में ये लोकोक्ति कही जाती है :-
चंद्र टरै सूरज टरै ,टरै जगत व्यव्हार। पै दृढ़व्रत श्री हरिश्चंद्र का , टरै न सत्य विचार।।
कथाओं में वर्णन आता है हरिश्चंद्र बहुत धार्मिक और दानी प्रवृति के राजा थे। इनके यज्ञ और दान कर्म से पृथ्वी लोक और देव लोक में चर्चा का विषय बन गया। कहते है एक बार देवराज इंद्र की सभा लगी और उस सभा में विशिष्ट जी और विश्वामित्र जी भी विरजमान थे। जैसा की सर्वविदित है देवराज इंद्र हमेशा अपने सिंघासन से ससंकित रहने वाले देवता है। कोई उनका सिंघासन न छीन ले इस भय से विश्वामित्र जी से राजा हरिश्चन्द्र के सत्य की परीक्षा लेने के लिए विश्वामित्र जी मना लिया और वशिष्ठ जी ने विश्वामित्र जी से कहा हम आपकी परीक्षा के बीच में नहीं आएंगे अगर हमारा शिष्य पास हुआ तो अपनी तपस्या का फल उसे आपको देना पड़ेगा।
एक बार राजा हरिश्चंद्र की सभा में विश्वामित्र जी आये और उनसे उनके संपूर्ण राज्य को दान के रूप में मांग लिया और पांच सौ स्वर्ण मुद्रा दक्षिणा रूप में माँगा ,राजा ने कहा की " पांच सौ क्या आप चाहे जितनी स्वर्ण मुद्राएं ले लीजिये। इस पर विश्वामित्र जी हॅसने लगे और राजा को याद दिलाये कि सारा राजपाठ के साथ राज्य को कोष भी वे दान कर चुके है और दान की हुई वस्तु को दुबारा दान नहीं दिया जाता। राजा हरिश्चंद्र ने पांच सौ स्वर्ण मुद्राए देने के लिए स्वीकार्य किया। राजा ने विश्वामित्र से समय माँगा , विश्वामित्र ने समय तो दे दिया किन्तु चेतावनी भी दी कि यदि समय पर दक्षिणा न मिली तो श्राप देकर भस्म कर देंगे , राजा को भस्म होने का भय तो नहीं था किन्तु समय से दक्षिणा न चुका पाने पर अपने अपयश का भय अवश्य था।
राजा हरिश्चंद्र ने अपना राज्य विश्वामित्र को सौपकर वे अपना राज्य विश्वामित्र को सौंप कर अपनी पत्नी व पुत्र को लेकर काशी चले आये. काशी में राजा हरिश्चंद्र ने कई जगहों पर अपने को बेचने का प्रयास किया पर सफलता नहीं मिली. रानी और पुत्र को काशी के एक साहूकार ने खरीद लिया परन्तु पांच सौ स्वर्ण मुद्राएं नहीं प्राप्त हुई तो अपने को भी बेचने का प्रयास किया। शाम तक राजा को श्मशान घाट के मालिक डोम ने ख़रीदा। इस प्रकार राजा ने प्राप्त धन से विश्वामित्र की दक्षिणा चूका दी।
इस प्रकार सत्य के लिए राजा हरहरिश्चंद्र ने रानी तथा अपने पुत्र को बेंच कर अपना धर्म निभाया , जो राजा थे सत्य की रक्षा के लिए अब डोम के यहाँ श्मशान घाट कर वसूलने का कार्य करने लगे और उधर रानी और पुत्र रोहित साहूकार की सेवा में लग गए। एक दिन सेठानी ने पूजा के लिए रोहित को पुष्प चयन के लिए भेजा और बगीचे में रोहित को सांप ने डस लिया और रोहित का देहांत हो गया। विधि का विधान देखिये रानी अपने पुत्र को लेकर श्मशान घाट पर ले गयी अंतिम संस्कार के लिए, जहा पर कर वसूलने का कार्य राजा हरिश्चंद्र कर रहे थे।राजा ने अपने धर्म के पालन के लिए बिना कर दिए अंतिम संस्कार करने से मना कर दिए। रानी और राजा ने एक दूसरे को पहचान लिया अपने पुत्र को भी पहचान लिया पर अपने धर्म पर अटल रहे , रानी ने कर के रूप में अपना आँचल फाड़कर जैसे देना चाहा उसी समय स्वयं ईश्वर प्रकट हो गए और उन्होंने राजा से कहा -" हरिश्चंद्र ! तुमने सत्य को जीवन में धारण करने का उच्चतम आदर्श स्थापित किया है। तुम्हारी कर्त्तव्यनिष्ठा महान है , तुम इतिहास में अमर रहोगें। "
हरिश्चंद्र ने ईश्वर से कहा -"अगर वाकई मेरी कर्तव्यनिष्ठा और सत्य के प्रति समर्पण सही है तो कृपया इस स्त्री के पुत्र को जीवनदान दीजिए"। इतने में ही रोहिताश्व जीवित हो उठा। ईश्वर की अनुमति से विश्वामित्र ने भी हरिश्चंद्र का राजपाठ उन्हें वापस लौटा दिया।
पंडित राकेश शुक्ल शास्त्री
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