रक्षाबंधन उत्सव

भारत माता की जय

Wednesday, 29 November 2017

विश्वामित्र आगमन

            ।। रामायण बालकाण्ड ।।
             ।। विश्वामित्र आगमन ।।

बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी।।
जहँ जप जग्य जोग मुनि करहीं। अति मारीच सुबाहुहि डरहीं॥

देखत जग्य निसाचर धावहिं। करहिं उपद्रव मुनि दुख पावहिं॥

गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहिं न निसिचर पापी॥

तब मुनिबर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा॥
अयोध्यापति महाराज दशरथ के दरबार में यथोचित आसन पर गुरु वशिष्ठ, मन्त्रीगण और दरबारीगण बैठे थे।
अयोध्यानरेश ने गुरु वशिष्ठ से कहा, हे गुरुदेव! जीवन तो क्षणभंगुर है और मैं वृद्धावस्था की ओर अग्रसर होते जा रहा हूँ। राम, भरत, लक्षम्ण और शत्रुघ्न चारों ही राजकुमार अब वयस्क भी हो चुके हैं। मेरी इच्छा है कि इस शरीर को त्यागने के पहले राजकुमारों का विवाह देख लूँ। अतः आपसे निवेदन है कि इन राजकुमारों के लिये योग्य कन्याओं की खोज करवायें। महाराज दशरथ की बात पूरी होते ही द्वारपाल ने ऋषि विश्वामित्र के आगमन की सूचना दी। स्वयं राजा दशरथ ने द्वार तक जाकर विश्वामित्र की अभ्यर्थना की और आदरपूर्वक उन्हें दरबार के अन्दर ले आये तथा गुरु वशिष्ठ के पास ही आसन देकर उनका यथोचित सत्कार किया।
कुशलक्षेम पूछने के पश्चात् राजा दशरथ ने विनम्र वाणी में ऋषि विश्वामित्र से कहा, हे मुनिश्रेष्ठ! आपके दर्शन से मैं कृतार्थ हुआ तथा आपके चरणों की पवित्र धूलि से यह राजदरबार और सम्पूर्ण अयोध्यापुरी धन्य हो गई। अब कृपा करके आप अपने आने का प्रयोजन बताइए। किसी भी प्रकार की आपकी सेवा करके मैं स्वयं को अत्यंत भाग्यशाली समझूँगा।
राजा के विनयपूर्ण वचनों को सुनकर मुनि विश्वामित्र बोले, हे राजन्! आपने अपने कुल की मर्यादा के अनुरूप ही वचन कहे हैं। इक्ष्वाकु वंश के राजाओं की श्रद्धा भक्ति गौ, ब्राह्मण और ऋषि-मुनियों के प्रति सदैव ही रही है। मैं आपके पास एक विशेष प्रयोजन से आया हूँ, समझिये कि कुछ माँगने के लिये आया हूँ। यदि आप मुझे वांछित वस्तु देने का वचन दें तो मैं अपनी माँग आपके सामने प्रस्तुत करू। आप के वचन न देने की दशा में मैं बिना कुछ माँगे ही वापस लौट जाऊँगा।
महाराज दशरथ ने कहा, हे ब्रह्मर्षि! आप निःसंकोच अपनी माँग रखें। सम्पूर्ण विश्व जानता है कि रघुकुल के राजाओं का वचन ही उनकी प्रतिज्ञा होती है। आप माँग तो मैं अपना शीश काट कर भी आपके चरणों में रख सकता हूँ। उनके इन वचनों से आश्वस्त ऋषि विश्वामित्र बोले, राजन्! मैं अपने आश्रम में एक यज्ञ कर रहा हूँ। इस यज्ञ के पूर्णाहुति के समय मारीच और सुबाहु नाम के दो राक्षस आकर रक्त, माँस आदि अपवित्र वस्तुएँ यज्ञ वेदी में फेंक देते हैं। इस प्रकार यज्ञ पूर्ण नहीं हो पाता। ऐसा वे अनेक बार कर चुके हैं। मैं उन्हें अपने तेज से श्राप देकर नष्ट भी नहीं कर सकता क्योंकि यज्ञ करते समय क्रोध करना वर्जित है।

    मैं जानता हूँ कि आप मर्यादा का पालन करने वाले, ऋषि मुनियों के हितैषी एवं प्रजावत्सल राजा हैं। मैं आपसे आपके ज्येष्ठ पुत्र राम को माँगने के लिये आया हूँ ताकि वह मेरे साथ जाकर राक्षसों से मेरे यज्ञ की रक्षा कर सके और मेरा यज्ञानुष्ठान निर्विघ्न पूरा हो सके। मुझे पता है कि राम आसानी के साथ उन दोनों का संहार कर सकते हैं। अतः केवल दस दिनों के लिये राम को मुझे दे दीजिये। कार्य पूर्ण होते ही मैं उन्हें सकुशल आप के पास वापस पहुँचा दूँगा।
विश्वामित्र की बात सुनकर राजा दशरथ को अत्यन्त विषाद हुआ। ऐसा लगने लगा कि अभी वे मूर्छित हो जायेंगे। फिर स्वयं को संभाल कर उन्होंने कहा, मुनिवर! राम अभी बालक है। राक्षसों का सामना करना उसके लिये सम्भव नहीं होगा। आपके यज्ञ की रक्षा करने के लिये मैं स्वयं ही जाने को तैयार हूँ। विश्वामित्र बोले, राजन्! आप तनिक भी सन्देह न करें कि राम उनका सामना नहीं कर सकते। मैंने अपने योगबल से उनकी शक्तियों का अनुमान लगा लिया है। आप निःशंक होकर राम को मेरे साथ भेज दीजिये।
इस पर राजा दशरथ ने उत्तर दिया, हे मुनिश्रेष्ठ! राम ने अभी तक किसी राक्षस के माया प्रपंचों को नहीं देखा है और उसे इस प्रकार के युद्ध का अनुभव भी नहीं है। जब से उसने जन्म लिया है, मैंने उसे अपनी आँखों के सामने से कभी ओझल भी होने नहीं दिया है। उसके वियोग से मेरे प्राण निकल जावेंगे। आपसे विनय है कि कृपा करके मुझे ससैन्य चलने की आज्ञा दें।
पुत्रमोह से ग्रसित होकर राजा दशरथ को अपनी प्रतिज्ञा से विचलित होते देख ऋषि विश्वामित्र आवेश में आ गये। उन्होंने कहा, राजन्! मैं नहीं जानता था कि रघुकुल में अब प्रतिज्ञा पालन करने की परम्परा समाप्त हो गई है। यदि जानता होता तो मैं कदापि नहीं आता। लो मैं अब चला जाता हूँ। बात समाप्त होते होते उनका मुख क्रोध से लाल हो गया।
विश्वामित्र को इस प्रकार क्रुद्ध होते देख कर दरबारी एवं मन्त्रीगण भयभीत हो गये और किसी प्रकार के अनिष्ट की कल्पना से वे काँप उठे। गुरु वशिष्ठ ने राजा को समझाया, हे राजन्! पुत्र के मोह में ग्रसित होकर रघुकुल की मर्यादा, प्रतिज्ञा पालन और सत्यनिष्ठा को कलंकित मत कीजिये। मैं आपको परामर्श देता हूँ कि आप राम के बालक होने की बात को भूल कर एवं निःशंक होकर राम को मुनिराज के साथ भेज दीजिये। महामुनि अत्यन्त विद्वान, नीतिनिपुण और अस्त्र-शस्त्र के ज्ञाता हैं। मुनिवर के साथ जाने से राम का किसी प्रकार से भी अहित नहीं हो सकता उल्टे वे इनके साथ रह कर शस्त्र और शास्त्र विद्याओं में अत्यधिक निपुण हो जायेंगे तथा उनका कल्याण ही होगा।
गुरु वशिष्ठ के वचनों से आश्वस्त होकर राजा दशरथ ने राम को बुला भेजा। राम के साथ साथ लक्ष्मण भी वहाँ चले आये। राजा दशरथ ने राम को ऋषि विश्वामित्र के साथ जाने की आज्ञा दी। पिता की आज्ञा शिरोधार्य करके राम के मुनिवर के साथ जाने के लिये तैयार हो जाने पर लक्ष्मण ने भी ऋषि विश्वामित्र से साथ चलने के लिये प्रार्थना की और अपने पिता से भी राम के साथ जाने के लिये अनुमति माँगी। अनुमति मिल जाने पर राम और लक्ष्मण सभी गुरुजनों से आशीर्वाद ले कर ऋषि विश्वामित्र के साथ चल पड़े।
समस्त अयोध्यावासियों ने देख कि मन्द धीर गति से जाते हुये मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र के पीछे पीछे कंधों पर धनुष और तरकस में बाण रखे दोनों भाई राम और लक्ष्मण ऐसे लग रहे थे मानों ब्रह्मा जी के पीछे दोनों अश्विनी कुमार चले जा रहें हों। अद्भुत् कांति से युक्त दोनों भाई गोह की त्वचा से बने दस्ताने पहने हुये थे, हाथों में धनुष और कटि में तीक्ष्ण धार वाली कृपाणें शोभायमान हो रहीं थीं। ऐसा प्रतीत होता था मानो स्वयं शौर्य ही शरीर धारण करके चले जा रहे हों।
लता विटपों के मध्य से होते हुये छः कोस लम्बा मार्ग पार करके वे पवित्र सरयू नदी के तट पर पहुँचे। मुनि विश्वामित्र ने स्नेहयुक्त मधुर वाणी में कहा, हे वत्स! अब तुम लोग सरयू के पवित्र जल से आचमन स्नानादि करके अपनी थकान दूर कर लो, फिर मैं तुम्हें प्रशिक्षण दूँगा। सर्वप्रथम मैं तुम्हें बला और अतिबला नामक विद्याएँ सिखाऊँगा। इन विद्याओं के विषय में राम के द्वारा जिज्ञासा प्रकट करने पर ऋषि विश्वामित्र ने बताया, ये दोनों ही विद्याएँ असाधारण हैं। इन विद्याओं में पारंगत व्यक्तियों की गिनती संसार के श्रेष्ठ पुरुषों में होती है। विद्वानों ने इन्हें समस्त विद्याओं की जननी बताया है। इन विद्याओं को प्राप्त करके तुम भूख और प्यास पर विजय पा जाओगे। इन तेजोमय विद्याओं की सृष्टि स्वयं ब्रह्मा जी ने की है। इन विद्याओं को पाने का अधिकारी समझ कर मैं तुम्हें इन्हें प्रदान कर रहा हूँ।
राम और लक्ष्मण के स्नानादि से निवृत होने के पश्चात् विश्वामित्र जी ने उन्हें इन विद्याओं की दीक्षा दी। इन विद्याओं के प्राप्त हो जाने पर उनके मुख मण्डल पर अद्भुत् कान्ति आ गई। तीनों ने सरयू तट पर ही विश्राम किया। गुरु की सेवा करने के पश्चात् दोनों भाई तृण शैयाओं पर सो गये।
क्रमशः :-
जय श्री राम
  

कूर्म अवतार

।। श्री गणेशाय नमः ।। ।। श्री परमात्मने नमः ।।
                ।। कच्छप अवतार ।।
कूर्म अवतार को कच्छप अवतार (कछुआ अवतार) भी कहते हैं। कूर्म अवतार में भगवान विष्णु ने क्षीरसागर के समुद्रमंथन के समय मंदर पर्वत को अपने कवच पर संभाला था। इस प्रकार भगवान विष्णु, मंदर पर्वत और वासुकि नामक सर्प की सहायता से देवों एंव असुरों ने समुद्र मंथन करके चौदह रत्नों की प्राप्ति की। इस समय भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप भी धारण किया था।
इस समय भगवान विष्णु ने मोहिनी पद्मपुराण (ब्रह्मखड, 8) में वर्णन हैं कि इंद्र ने दुर्वासा द्वारा प्रदत्त पारिजातक माला का अपमान किया तो कुपित होकर दुर्वासा ने शाप दिया, तुम्हारा वैभव नष्ट होगा। परिणामस्वरूप लक्ष्मी समुद्र में लुप्त हो गई। तत्पश्चात्‌ विष्णु के आदेशानुसार देवताओं तथा दैत्यों ने लक्ष्मी को पुन प्राप्त करने के लिए मंदराचल की मथानी तथा वासुकि की डोर बनाकर क्षीरसागर का मंथन किया।
मंथन करते समय मंदराचल रसातल को जाने लगा तो विष्णु ने कच्छप के रूप में अपनी पीठ पर धारण किया और देव-दानवों ने समुद्र से अमृत एवं लक्ष्मी सहित 14 रत्नों की प्राप्ति करके पूर्ववत्‌ वैभव संपादित किया। प भी धारण किया था।
क्रमशः :-
।। जयतु सनातन धर्मः ।।

Tuesday, 28 November 2017

रामायण बालकाण्ड

                ।। श्री गणेशाय नमः ।।
              ।। रामायण बालकाण्ड ।।

कौशल प्रदेश, जिसकी स्थापना वैवस्वत मनु ने की थी, पवित्र सरयू नदी के तट पर स्थित है। सुन्दर एवं समृद्ध अयोध्या नगरी इस प्रदेश की राजधानी है। वैवस्वत मनु के वंश में अनेक शूरवीर, पराक्रमी, प्रतिभाशाली तथा यशस्वी राजा हुये जिनमें से राजा दशरथ भी एक थे।

राजा दशरथ वेदों के मर्मज्ञ, धर्मप्राण, दयालु, रणकुशल, और प्रजापालक थे। उनके राज्य में प्रजा कष्टरहित, सत्यनिष्ठ एवं ईश्वरभक्त थी। उनके राज्य में किसी का किसी के भी प्रति द्वेषभाव का सर्वथा अभाव था।
एक दिन दर्पण में अपने कृष्णवर्ण केशों के मध्य एक श्वेत रंग के केश को देखकर महाराज दशरथ विचार करने लगे कि अब मेरे यौवन के दिनों का अंत निकट है और अब तक मैं निःसंतान हूँ। मेरा वंश आगे कैसे बढ़ेगा तथा किसी उत्तराधिकारी के अभाव में राज्य का क्या होगा? इस प्रकार विचार करके उन्होंने पुत्र प्राप्ति हेतु पुत्रयेष्ठि यज्ञ करने का संकल्प किया। अपने कुलगुरु वशिष्ठ जी को बुलाकर उन्होंने अपना मन्तव्य बताया तथा यज्ञ के लिये उचित विधान बताने की प्रार्थना की।.
उनके विचारों को उचित तथा युक्तियुक्त जान कर गुरु वशिष्ठ जी बोले, हे राजन्! पुत्रयेष्ठि यज्ञ करने से अवश्य ही आपकी मनोकामना पूर्ण होगी ऐसा मेरा विश्वास है। अतः आप शीघ्रातिशीघ्र अश्वमेध यज्ञ करने तथा इसके लिये एक सुन्दर श्यामकर्ण अश्व छोड़ने की व्यवस्था करें।

गुरु वशिष्ठ की मन्त्रणा के अनुसार शीघ्र ही महाराज दशरथ ने सरयू नदी के उत्तरी तट पर सुसज्जित एवं अत्यन्त मनोरम यज्ञशाला का निर्माण करवाया तथा मन्त्रियों और सेवकों को सारी व्यवस्था करने की आज्ञा दे कर महाराज दशरथ ने रनिवास में जा कर अपनी तीनों रानियों कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा को यह शुभ समाचार सुनाया। महाराज के वचनों को सुन कर सभी रानियाँ प्रसन्न हो गईं।

              ।। रामायण बालकाण्ड ।।
                 ।। श्री राम जन्म ।।

जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल।
चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥
नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥
मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥
सीतल मंद सुरभि बह बाऊ। हरषित सुर संतन मन चाऊ॥
बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा। स्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा॥

मन्त्रीगणों तथा सेवकों ने महाराज की आज्ञानुसार श्यामकर्ण घोड़ा चतुरंगिनी सेना के साथ छुड़वा दिया। महाराज दशरथ ने देश देशान्तर के मनस्वी, तपस्वी, विद्वान ऋषि-मुनियों तथा वेदविज्ञ प्रकाण्ड पण्डितों को यज्ञ सम्पन्न कराने के लिये बुलावा भेज दिया। निश्चित समय आने पर समस्त अभ्यागतों के साथ महाराज दशरथ अपने गुरु वशिष्ठ जी तथा अपने परम मित्र अंग देश के अधिपति लोभपाद के जामाता ऋंग ऋषि को लेकर यज्ञ मण्डप में पधारे। इस प्रकार महान यज्ञ का विधिवत शुभारम्भ किया गया। सम्पूर्ण वातावरण वेदों की ऋचाओं के उच्च स्वर में पाठ से गूँजने तथा समिधा की सुगन्ध से महकने लगा।

समस्त पण्डितों, ब्राह्मणों, ऋषियों आदि को यथोचित धन-धान्य, गौ आदि भेंट कर के सादर विदा करने के साथ यज्ञ की समाप्ति हुई। राजा दशरथ ने यज्ञ के प्रसाद चरा को अपने महल में ले जाकर अपनी तीनों रानियों में वितरित कर दिया। प्रसाद ग्रहण करने के परिणामस्वरूप परमपिता परमात्मा की कृपा से तीनों रानियों ने गर्भधारण किया।

जब चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में सूर्य, मंगल शनि, वृहस्पति तथा शुक्र अपने-अपने उच्च स्थानों में विराजमान थे, कर्क लग्न का उदय होते ही महाराज दशरथ की बड़ी रानी कौशल्या के गर्भ से एक शिशु का जन्म हुआ जो कि श्यामवर्ण, अत्यन्त तेजोमय, परम कान्तिवान तथा अद्भुत सौन्दर्यशाली था। उस शिशु को देखने वाले ठगे से रह जाते थे। इसके पश्चात् शुभ नक्षत्रों और शुभ घड़ी में महारानी कैकेयी के एक तथा तीसरी रानी सुमित्रा के दो तेजस्वी पुत्रों का जन्म हुआ।

सम्पूर्ण राज्य में आनन्द मनाया जाने लगा। महाराज के चार पुत्रों के जन्म के उल्लास में गन्धर्व गान करने लगे और अप्सरायें नृत्य करने लगीं। देवता अपने विमानों में बैठ कर पुष्प वर्षा करने लगे। महाराज ने उन्मुक्त हस्त से राजद्वार पर आये हुये भाट, चारण तथा आशीर्वाद देने वाले ब्राह्मणों और याचकों को दान दक्षिणा दी। पुरस्कार में प्रजा-जनों को धन-धान्य तथा दरबारियों को रत्न, आभूषण तथा उपाधियाँ प्रदान किया गया। चारों पुत्रों का नामकरण संस्कार महर्षि वशिष्ठ के द्वारा कराया गया तथा उनके नाम रामचन्द्र, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न रखे गये।

आयु बढ़ने के साथ ही साथ रामचन्द्र गुणों में भी अपने भाइयों से आगे बढ़ने तथा प्रजा में अत्यंत लोकप्रिय होने लगे। उनमें अत्यन्त विलक्षण प्रतिभा थी जिसके परिणामस्वरू अल्प काल में ही वे समस्त विषयों में पारंगत हो गये। उन्हें सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को चलाने तथा हाथी, घोड़े एवं सभी प्रकार के वाहनों की सवारी में उन्हें असाधारण निपुणता प्राप्त हो गई। वे निरन्तर माता-पिता और गुरुजनों की सेवा में लगे रहते थे। उनका अनुसरण शेष तीन भाई भी करते थे। गुरुजनों के प्रति जितनी श्रद्धा भक्ति इन चारों भाइयों में थी उतना ही उनमें परस्पर प्रेम और सौहार्द भी था। महाराज दशरथ का हृदय अपने चारों पुत्रों को देख कर गर्व और आनन्द से भर उठता था।

जय श्री राम

नकल करना बुरा है।

।। श्री गणेशाय नमः ।। ।। श्री परमात्मने नमः ।।
             ।। नकल करना बुरा है।।
एक पहाड़ की ऊंची चोटी पर एक बाज रहता था। पहाड़ की तराई में बरगद के पेड़ पर एक कौआ अपना घोंसला बनाकर रहता था। वह बड़ा चालाक और धूर्त था। उसकी कोशिश सदा यही रहती थी कि बिना मेहनत किए खाने को मिल जाए। पेड़ के आसपास खोह में खरगोश रहते थे। जब भी खरगोश बाहर आते तो बाज ऊंची उड़ान भरते और एकाध खरगोश को उठाकर ले जाते।
एक दिन कौए ने सोचा, ‘वैसे तो ये चालाक खरगोश मेरे हाथ आएंगे नहीं, अगर इनका नर्म मांस खाना है तो मुझे भी बाज की तरह करना होगा। एकाएक झपट्टा मारकर पकड़ लूंगा।’

दूसरे दिन कौए ने भी एक खरगोश को दबोचने की बात सोचकर ऊंची उड़ान भरी। फिर उसने खरगोश को पकड़ने के लिए बाज की तरह जोर से झपट्टा मारा। अब भला कौआ बाज का क्या मुकाबला करता। खरगोश ने उसे देख लिया और झट वहां से भागकर चट्टान के पीछे छिप गया। कौआ अपनी हीं झोंक में उस चट्टान से जा टकराया। नतीजा, उसकी चोंच और गरदन टूट गईं और उसने वहीं तड़प कर दम तोड़ दिया।
शिक्षा—नकल करने के लिए भी अकल चाहिए।
क्रमशः :-
।। जयतु सनातन धर्मः ।।

Monday, 27 November 2017

हनुमद रामायण

।। श्री गणेशाय नमः ।। ।। श्री परमात्मने नमः ।।
                  ।। हनुमद रामायण ।।
ऐसा माना जाता है कि प्रभु श्रीराम की रावण के ऊपर विजय प्राप्त करने के पश्चात ईश्वर की आराधना के लिये हनुमान हिमालय पर चले गये थे। वहाँ जाकर उन्होंने पर्वत शिलाओं पर अपने नाखून से रामायण की रचना की जिसमे उन्होनें प्रभु श्रीराम के कर्मों का उल्लेख किया था। कुछ समयोपरांत जब महर्षि वाल्मिकी हनुमानजी को अपने द्वारा रची गई रामायण दिखाने पहुँचे तो उन्होंने हनुमानजी द्वारा रचित रामायण भी देखी। उसे देखकर वाल्मिकी तोड़े निराश हो गये तो हनुमान ने उनसे उनकी निराशा का कारण पूछा तो महर्षि बोले कि उन्होने कठोर परिश्रम के पश्चात जो रामायण रची है वो हनुमान की रचना के समक्ष कुछ भी नहीं है अतः आने वाले समय में उनकी रचना उपेक्षित रह जायेगी। ये सुनकर हनुमान ने रामायण रचित पर्वत शिला को एक कन्धे पर उठाया और दूसरे कन्धे पर महर्षि वाल्मिकी को बिठा कर समुद्र के पास गये और स्वयं द्वारा की गई रचना को राम को समर्पित करते हुए समुद्र में समा दिया। तभी से हनुमान द्वारा रची गई हनुमद रामायण उपलब्ध नहीं है।
तदुपरांत महर्षि वाल्मिकी ने कहा कि तुम धन्य हो हनुमान, तुम्हारे जैसा कोइ दूसरा नहीं है और साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि वो हनुमान की महिमा का गुणगान करने के लिये एक जन्म और लेंगे। इस बात को उन्होने अपनी रचना के अंत मे कहा भी है।

माना जाता है कि रामचरितमानस के रचयिता कवि तुलसी दास कोई और नहीं बल्कि महर्षि वाल्मिकी का ही दूसरा अवतार थे।

महाकवि तुलसीदास के समय में ही एक पटलिका को समुद्र के किनारे पाया गया जिसे कि एक सार्वजनिक स्थल पर टाँग दिया गया था ताकी विद्यार्थी उस गूढ़लिपि को पढ़कर उसका अर्थ निकाल सकें। माना जाता है कि कालीदास ने उसका अर्थ निकाल लिया था और वो ये भी जान गये थे कि ये पटलिका कोई और नहिं बल्कि हनुमान द्वारा उनके पूर्व जन्म में रची गई हनुमद् रामायण का ही एक अंश है जो कि पर्वत शिला से निकल कर ज़ल के साथ प्रवाहित होके यहाँ तक आ गई है। उस पटलिका को पाकर तुलसीदास ने अपने आपको बहुत भग्यशाली माना कि उन्हें हनुमद रामायण के श्लोक का एक पद्य प्राप्त हुआ।
क्रमशः :-
।। जयतु सनातन धर्मः ।।
    ।। जय श्री राम ।।

Sunday, 26 November 2017

शिव विवाह

।। श्री गणेशाय नमः ।। ।। श्री परमात्मने नमः ।।
                 ।। शिव-विवाह।।

सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥
कुंडल कंकन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥
ससि ललाट सुंदर सिर गंगा।नयन तीनि उपबीत भुजंगा॥
गरल कंठ उर नर सिर माला।असिव बेष सिवधाम कृपाला॥
कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा। चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा॥
सती के विरह में शंकरजी की दयनीय दशा हो गई। वे हर पल सती का ही ध्यान करते रहते और उन्हीं की चर्चा में व्यस्त रहते। उधर सती ने भी शरीर का त्याग करते समय संकल्प किया था कि मैं राजा हिमालय के यहाँ जन्म लेकर शंकरजी की अर्द्धांगिनी बनूँ।

अब जगदम्बा का संकल्प व्यर्थ होने से तो रहा। वे उचित समय पर राजा हिमालय की पत्नी मैना के गर्भ में प्रविष्ट होकर उनकी कोख में से प्रकट हुईं। पर्वतराज की पुत्री होने के कारण वे 'पार्वती' कहलाईं। जब पार्वती बड़ी होकर सयानी हुईं तो उनके माता-पिता को अच्छा वर तलाश करने की चिंता सताने लगी।

एक दिन अचानक देवर्षि नारद राजा हिमालय के महल में आ पहुँचे और पार्वती को देख कहने लगे कि इसका विवाह शंकरजी के साथ होना चाहिए और वे ही सभी दृष्टि से इसके योग्य हैं।

पार्वती के माता-पिता के आनंद का यह जानकर ठिकाना न रहा कि साक्षात जगन्माता सती ही उनके यहाँ प्रकट हुई हैं। वे मन ही मन भाग्य को सराहने लगे।

एक दिन अचानक भगवान शंकर सती के विरह में घूमते-घूमते उसी प्रदेश में जा पहुँचे और पास ही के स्थान गंगावतरण में तपस्या करने लगे। जब हिमालय को इसकी जानकारी मिली तो वे पार्वती को लेकर शिवजी के पास गए।

वहाँ राजा ने शिवजी से विनम्रतापूर्वक अपनी पुत्री को सेवा में ग्रहण करने की प्रार्थना की। शिवजी ने पहले तो आनाकानी की, किंतु पार्वती की भक्ति देखकर वे उनका आग्रह न टाल न सके।

शिवजी से अनुमति मिलने के बाद तो पार्वती प्रतिदिन अपनी सखियों को साथ ले उनकी सेवा करने लगीं। पार्वती हमेशा इस बात का सदा ध्यान रखती थीं कि शिवजी को किसी भी प्रकार का कष्ट न हो।

वे हमेशा उनके चरण धोकर चरणोदक ग्रहण करतीं और षोडशोपचार से पूजा करतीं। इसी तरह पार्वती को भगवान शंकर की सेवा करते दीर्घ समय व्यतीत हो गया। किंतु पार्वती जैसी सुंदर बाला से इस प्रकार एकांत में सेवा लेते रहने पर भी शंकर के मन में कभी विकार नहीं हुआ।

वे सदा अपनी समाधि में ही निश्चल रहते। उधर देवताओं को तारक नाम का असुर बड़ा त्रास देने लगा। यह जानकर कि शिव के पुत्र से ही तारक की मृत्यु हो सकती है, सभी देवता शिव-पार्वती का विवाह कराने की चेष्टा करने लगे।

उन्होंने शिव को पार्वती के प्रति अनुरक्त करने के लिए कामदेव को उनके पास भेजा, किंतु पुष्पायुध का पुष्पबाण भी शंकर के मन को विक्षुब्ध न कर सका। उलटा कामदेव उनकी क्रोधाग्नि से भस्म हो गए।

इसके बाद शंकर भी वहाँ अधिक रहना अपनी तपश्चर्या के लिए अंतरायरूप समझ कैलास की ओर चल दिए। पार्वती को शंकर की सेवा से वंचित होने का बड़ा दुःख हुआ, किंतु उन्होंने निराश न होकर अब की बार तप द्वारा शंकर को संतुष्ट करने की मन में ठानी।

उनकी माता ने उन्हें सुकुमार एवं तप के अयोग्य समझकर बहुत मना किया, इसीलिए उनका 'उमा'- उ+मा (तप न करो)- नाम प्रसिद्ध हुआ। किंतु पार्वती पर इसका असर न हुआ। अपने संकल्प से वे तनिक भी विचलित नहीं हुईं। वे भी घर से निकल उसी शिखर पर तपस्या करने लगीं, जहाँ शिवजी ने तपस्या की थी।

तभी से लोग उस शिखर को 'गौरी-शिखर' कहने लगे। वहाँ उन्होंने पहले वर्ष फलाहार से जीवन व्यतीत किया, दूसरे वर्ष वे पर्ण (वृक्षों के पत्ते) खाकर रहने लगीं और फिर तो उन्होंने पर्ण का भी त्याग कर दिया और इसीलिए वे 'अपर्णा' कहलाईं।

इस प्रकार पार्वती ने तीन हजार वर्ष तक तपस्या की। उनकी कठोर तपस्या को देख ऋषि-मुनि भी दंग रह गए।

अंत में भगवान आशुतोष का आसन हिला। उन्होंने पार्वती की परीक्षा के लिए पहले सप्तर्षियों को भेजा और पीछे स्वयं वटुवेश धारण कर पार्वती की परीक्षा के निमित्त प्रस्थान किया।

जब इन्होंने सब प्रकार से जाँच-परखकर देख लिया कि पार्वती की उनमें अविचल निष्ठा है, तब तो वे अपने को अधिक देर तक न छिपा सके। वे तुरंत अपने असली रूप में पार्वती के सामने प्रकट हो गए और उन्हें पाणिग्रहण का वरदान देकर अंतर्धान हो गए।

पार्वती अपने तप को पूर्ण होते देख घर लौट आईं और अपने माता-पिता से सारा वृत्तांत कह सुनाया। अपनी दुलारी पुत्री की कठोर तपस्या को फलीभूत होता देखकर माता-पिता के आनंद का ठिकाना नहीं रहा।

उधर शंकरजी ने सप्तर्षियों को विवाह का प्रस्ताव लेकर हिमालय के पास भेजा और इस प्रकार विवाह की शुभ तिथि निश्चित हुई।

सप्तर्षियों द्वारा विवाह की तिथि निश्चित कर दिए जाने के बाद भगवान्‌ शंकरजी ने नारदजी द्वारा सारे देवताओं को विवाह में सम्मिलित होने के लिए आदरपूर्वक निमंत्रित किया और अपने गणों को बारात की तैयारी करने का आदेश दिया।

उनके इस आदेश से अत्यंत प्रसन्न होकर गणेश्वर शंखकर्ण, केकराक्ष, विकृत, विशाख, विकृतानन, दुन्दुभ, कपाल, कुंडक, काकपादोदर, मधुपिंग, प्रमथ, वीरभद्र आदि गणों के अध्यक्ष अपने-अपने गणों को साथ लेकर चल पड़े।

नंदी, क्षेत्रपाल, भैरव आदि गणराज भी कोटि-कोटि गणों के साथ निकल पड़े। ये सभी तीन नेत्रों वाले थे। सबके मस्तक पर चंद्रमा और गले में नीले चिन्ह थे। सभी ने रुद्राक्ष के आभूषण पहन रखे थे। सभी के शरीर पर उत्तम भस्म पुती हुई थी।

इन गणों के साथ शंकरजी के भूतों, प्रेतों, पिशाचों की सेना भी आकर सम्मिलित हो गई। इनमें डाकनी, शाकिनी, यातुधान, वेताल, ब्रह्मराक्षस आदि भी शामिल थे। इन सभी के रूप-रंग, आकार-प्रकार, चेष्टाएँ, वेश-भूषा, हाव-भाव आदि सभी कुछ अत्यंत विचित्र थे।

किसी के मुख ही नहीं था और किसी के बहुत से मुख थे। कोई बिना हाथ-पैर के ही था तो कोई बहुत से हाथ-पैरों वाला था। किसी के बहुत सी आँखें थीं और किसी के पास एक भी आँख नहीं थी। किसी का मुख गधे की तरह, किसी का सियार की तरह, किसी का कुत्ते की तरह था।

उन सबने अपने अंगों में ताजा खून लगा रखा था। कोई अत्यंत पवित्र और कोई अत्यंत वीभत्स तथा अपवित्र गणवेश धारण किए हुए था। उनके आभूषण बड़े ही डरावने थे उन्होंने हाथ में नर-कपाल ले रखा था।

वे सबके सब अपनी तरंग में मस्त होकर नाचते-गाते और मौज उड़ाते हुए महादेव शंकरजी के चारों ओर एकत्रित हो गए।

चंडीदेवी बड़ी प्रसन्नता के साथ उत्सव मनाती हुई भगवान्‌ रुद्रदेव की बहन बनकर वहाँ आ पहुँचीं। उन्होंने सर्पों के आभूषण पहन रखे थे। वे प्रेत पर बैठकर अपने मस्तक पर सोने का कलश धारण किए हुए थीं।

धीरे-धीरे वहाँ सारे देवता भी एकत्र हो गए। उस देवमंडली के बीच में भगवान श्री विष्णु गरुड़ पर विराजमान थे। पितामह ब्रह्माजी भी उनके पास में मूर्तिमान्‌ वेदों, शास्त्रों, पुराणों, आगमों, सनकाद महासिद्धों, प्रजापतियों, पुत्रों तथा कई परिजनों के साथ उपस्थित थे।

देवराज इंद्र भी कई आभूषण पहन अपने ऐरावत गज पर बैठ वहाँ पहुँचे थे। सभी प्रमुख ऋषि भी वहाँ आ गए थे। तुम्बुरु, नारद, हाहा और हूहू आदि श्रेष्ठ गंधर्व तथा किन्नर भी शिवजी की बारात की शोभा बढ़ाने के लिए वहाँ पहुँच गए थे। इनके साथ ही सभी जगन्माताएँ, देवकन्याएँ, देवियाँ तथा पवित्र देवांगनाएँ भी वहाँ आ गई थीं।

इन सभी के वहाँ मिलने के बाद भगवान शंकरजी अपने स्फुटिक जैसे उज्ज्वल, सुंदर वृषभ पर सवार हुए। दूल्हे के वेश में शिवजी की शोभा निराली ही छटक रही थी।

इस दिव्य और विचित्र बारात के प्रस्थान के समय डमरुओं की डम-डम, शंखों के गंभीर नाद, ऋषियों-महर्षियों के मंत्रोच्चार, यक्षों, किन्नरों, गन्धर्वों के सरस गायन और देवांगनाओं के मनमोहक नृत्य और मंगल गीतों की गूँज से तीनों लोक परिव्याप्त हो उठे।

उधर हिमालय ने विवाह के लिए बड़ी धूम-धाम से तैयारियाँ कीं और शुभ लग्न में शिवजी की बारात हिमालय के द्वार पर आ लगी। पहले तो शिवजी का विकट रूप तथा उनकी भूत-प्रेतों की सेना को देखकर मैना बहुत डर गईं और उन्हें अपनी कन्या का पाणिग्रहण कराने में आनाकानी करने लगीं।

पीछे से जब उन्होंने शंकरजी का करोड़ों कामदेवों को लजाने वाला सोलह वर्ष की अवस्था का परम लावण्यमय रूप देखा तो वे देह-गेह की सुधि भूल गईं और शंकर पर अपनी कन्या के साथ ही साथ अपनी आत्मा को भी न्योछावर कर दिया।

हर-गौरी का विवाह आनंदपूर्वक संपन्न हुआ। हिमाचल ने कन्यादान दिया। विष्णु भगवान तथा अन्यान्य देव और देव-रमणियों ने नाना प्रकार के उपहार भेंट किए। ब्रह्माजी ने वेदोक्त रीति से विवाह करवाया। सब लोग अमित उछाह से भरे अपने-अपने स्थानों को लौट गए।
क्रमशः :-
।। जयतु सनातन धर्मः ।।

तुलसीदास

  “पन्द्रह सौ चौवन विसे कालिन्दी के तीर । श्रावण शुक्ला सप्तमी , तुलसी धरयो शरीर||" तुलसीदास का जन्म उत्तर प्रदेश के बांदा...